
शाही वंशज से लेकर गुमनामी तक: सुल्ताना बेगम का संघर्षमय सफर
कोलकाता: मुगल साम्राज्य के अंतिम शासक बहादुर शाह जफ़र के परपोते प्रिंस मोहम्मद मिर्ज़ा बेदार बख़्त की पत्नी सुल्ताना बेगम आज कोलकाता की तंग गलियों में गुमनामी और ग़रीबी की ज़िंदगी जी रही हैं। एक समय शाही खानदान से जुड़ी सुल्ताना ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में अपने जीवन के कड़वे सच को साझा किया, जो इतिहास और वर्तमान के बीच एक दर्दभरी दास्तान बयां करता है।
शाही विरासत, मगर अभावों की ज़िंदगी
सुल्ताना बेगम का जन्म लखनऊ में हुआ, लेकिन उनकी परवरिश कोलकाता में हुई, जहाँ उनके नाना उन्हें ले आए। हालाँकि, शाही खून होने के बावजूद उनकी ज़िंदगी आज भीषण आर्थिक तंगी से जूझ रही है। उन्होंने बताया कि 1960 में जवाहरलाल नेहरू ने बहादुर शाह जफ़र के परपोते के लिए ₹250 मासिक पेंशन तय की थी। उस समय यह रकम छोटी ज़रूरतों के लिए काफी थी, लेकिन आज बढ़कर ₹6,000 होने के बाद भी यह नाकाफी है।
पेंशन के सहारे गुज़ारा नामुमकिन
सुल्ताना को मिलने वाली ₹6,000 की पेंशन में से ₹2,500 किराए में चले जाते हैं। बचे ₹3,500 में खाने-पीने, दवाइयों और अन्य ज़रूरतों को पूरा करना उनके लिए एक चुनौती बना हुआ है। वह कहती हैं कि बचे पैसों से क्या खाऊँगी, कैसे रहूँगी? यह कोई भी समझ सकता है। मजबूरी में उन्होंने किताबों की बाइंडिंग, दुपट्टे सिलने और धागे के काम जैसे छोटे-मोटे काम करके गुज़ारा चलाया।
शाही परिवार से जुड़ी योजना भी नहीं लाई राहत
सुल्ताना ने बताया कि एक बार उन्हें ‘शाही प्रॉपर्टी प्रोटेक्शन पॉलिसी’ से जोड़ने की कोशिश की गई। किसी ने उनकी ओर से ₹10,000 मासिक पेंशन का आवेदन भी तैयार किया, लेकिन यह माँग पूरी नहीं हुई।
पति बेदार बख़्त का भी रहा रोचक सफर
सुल्ताना के पति प्रिंस बेदार बख़्त का जीवन भी असाधारण रहा। कहा जाता है कि उन्हें फूलों की टोकरी में छिपाकर भारत लाया गया था। शाही परंपरा के अनुसार, उन्हें घुड़सवारी, तीरंदाजी और बॉक्सिंग जैसे कौशल सिखाए गए थे। मगर यह प्रशिक्षण भी उन्हें आर्थिक संकट से न बचा सका।
इतिहास और वर्तमान का सवाल
सुल्ताना बेगम की कहानी सिर्फ़ एक व्यक्ति का संघर्ष नहीं, बल्कि ऐतिहासिक विरासत से जुड़े परिवारों की उपेक्षा का प्रश्न खड़ा करती है। क्या ऐसे परिवारों के प्रति सरकार और समाज की कोई ज़िम्मेदारी है? जबकि उनके पूर्वजों ने देश के इतिहास को गढ़ने में अहम भूमिका निभाई थी।
सुल्ताना आज भी उम्मीद नहीं छोड़तीं, लेकिन उनकी आँखों में सवाल है: “क्या शाही खानदान से जुड़े लोगों की मदद के लिए सरकार को कोई ठोस कदम नहीं उठाना चाहिए?” यह सवाल केवल उनका नहीं, बल्कि इतिहास के प्रति हमारे नज़रिए का भी है।